Category charitra
संयम का फल
मैं शत्रुओं से इतना नहीं चौंकता हूँ, जितना विकारों से चौंकता हूँ।”
गुजरात में भावनगर किला है। उस भावनगर का राजा भी जिससे काँपता था, ऐसा एक डाकू था जोगीदास खुमाण।
एक रात्रि को वह अपनी एकांत जगह पर सोया था। चाँदनी रात थी। करीब 11 बजने को थे। इतने में एक सुंदरी सोलह श्रृंगार से सजी-धजी वहाँ आ पहुँची। जोगीदास चौंककर खड़ा हो गया।
“खड़ी रहो। कौन हो ?”
वह युवती बाँहें पसारती हुई बोलीः “तेरी वीरता पर मैं मुग्ध हूँ। अगर सदा के लिए नहीं तो केवल एक रात्रि के लिए ही मुझे अपनी भुजाओं में ले ले।”
गर्जता हुआ जोगीदास बोलाः “वहीं खड़ी रह। तू स्त्री है, यह मैं जानता हूँ। लेकिन मैं शत्रुओं से इतना नहीं डरता हूँ, जितना विकारों से चौंकता हूँ।”
युवतीः “मैंने मन से तुम्हें अपना पति मान लिया है।”
जोगीदासः “तुमने चाहे जो माना हो, मैं किसी गुरु की परम्परा से चला हूँ। मैं अपना सत्यानाश नहीं कर सकता। तुम जहाँ से आयी हो, वहीं लौट जाओ।’
वह युवती पुनः नाज-नखरे करने लगी, तब जोगीदास बोलाः “तुम मेरी बहन हो। मुझे इन विकारों में फँसाने की चेष्टा मत करो। चली जाओ।” समझा-बुझाकर उसे रवाना कर दिया।
तब से जोगीदास कभी अकेला नहीं सोया। अपने साथ दो अंगरक्षक रखने लगा। वह भी, कोई मार जाय इस भय से नहीं, वरन् कोई मेरा चरित्र भंग न कर जाय, इस भय से रखता था।
एक बार जोगीदास कहीं जा रहा था। गाँव के करीब खेत में एक ललना काम कर रही थी और प्रभातियाँ गाये जा रही थी। जोगीदास ने उस लड़की से पूछाः
“ऐसे सन्नाटे में तू अकेली काम कर रही है, तुझे तेरे शीलभंग (चरित्रभंग) का डर नहीं लगता ?”
तब उस युवती ने हँसिया सँभालते हुए, आँखे दिखाते हुए कड़क स्वर में कहाः “डर क्यों लगे ? जब तक हमारा भैया जोगीदास जीवित है, तब तक आसपास के पचास गाँवों की बहू-बेटियों को डर किस बात का।”
उस युवती को पता नहीं था कि यही जोगीदास है। जोगीदास को आत्मसंतोष हुआ कि ‘पचास गाँवों की बहू-बेटियों को तसल्ली है कि हमारा भैया जोगीदास है।’
डाकुओं में भी संयम होता है तो इस सदगुण के कारण वे इतने स्नेहपात्र हो सकते हैं तो फिर सज्जन का संयम उसे उसके लक्ष्य परमेश्वर से भी मिलाने में सहायक हो जाये, इसमें क्या आश्चर्य! सिंह जैसा बल भर देता है ब्रह्मचर्य का पालन। कुप्रसिद्ध को सुप्रसिद्ध कर देता है ब्रह्मचर्य का पालन। सदाचार, सदविचार और यौवन की सुरक्षा करता है ब्रह्मचर्य का पालन।
विद्यार्थी का प्राथमिक कर्तव्य है चरित्र-निर्माण
विद्यार्थी का प्राथमिक कर्तव्य है चरित्र-निर्माण। हम किसीके चरित्र को उसके कार्यों द्वारा ऑंक सकते हैं। कार्य ही चरित्र को व्यक्त करता है। किताबी जानकारों से मुझे घोर अरुचि है। मैं चाहता हूँ चरित्र, विवेक, कर्म। चरित्र के अंतर्गत सब कुछ आ जाता है – भगवान की भक्ति, देशभक्ति, भगवान को पाने की उत्कट आकांक्षा।
मैंने यह अनुभव कर लिया है कि अध्ययन ही विद्यार्थी के लिए अन्तिम लक्ष्य नहीं है। विद्यार्थियों का प्रायः यह विचार होता है कि अगर उन पर विश्वविद्यालय का ठप्पा लग गया तो उन्होंने जीवन का चरम लक्ष्य पा लियालेकिन अगर किसीको ऐसा ठप्पा लगने के बाद भी वास्तविक ज्ञान नहीं प्राप्त हुआ तो ? मुझे कहने दीजिये कि मुझे ऐसी शिक्षा से घृणा है। क्या इससे कहीं अधिक अच्छा यह नहीं है कि हम अशिक्षित रह जायें ?
शिक्षा के उद्देश्य हैं बुध्दि को कुशाग्र बनाना और विवेकशक्ति को विकसित करना। यदि ये दोनों उद्देश्य पूर्ण हो जाते हैं तो यह मानना चाहिए कि शिक्षा का लक्ष्य पूरा हो गया है। यदि कोई पढ़ा-लिखा व्यक्ति चरित्रवान नहीं है तो क्या मैं उसे पण्डित कहूँगा ? कभी नहीं। और यदि एक अनपढ़ व्यक्ति ईमानदारी से काम करता है, ईश्वर में विश्वास रखता है व उससे प्रेम करता है तो मैं उसे महापण्डित मानने को तैयार हूँ। कोई व्यक्ति कुछ बातें रट-रटकर ही विद्वान नहीं बन जाता। मुझे केवल श्रध्दा चाहिए। तर्क से अतीत श्रध्दा, यह श्रध्दा कि भगवान का अस्तित्व है। इसके अतिरिक्त मुझे कुछ भी नहीं चाहिए। महान ॠषियों ने कहा है कि श्रध्दा से ही ज्ञानप्राप्ति का मार्ग खुलता है। श्रध्दा से मुझमें भगवद्भक्ति जाग्रत होगी और भक्ति से ज्ञान मुझे स्वतः प्राप्त होगा।
भारतभूमि भगवान को बहुत प्यारी है। प्रत्येक युग में उन्होंने इस महान भूमि पर त्राता के रूप में जन्म लिया है, जिससे जन-जन को प्रकाश मिल सके, धरती पाप के बोझ से मुक्त हो और प्रत्येक भारतीय के हृदय में सत्य एवं धर्म प्रतिष्ठित हो सके। भगवान अनेक देशों में मनुष्य के रूप में अवतरित हुए हैंलेकिन किसी अन्य देश में उन्होंने इतनी बार अवतार नहीं लिया जितनी बार भारत में लिया है। इसलिए मैं कहता हूँ कि हमारी भारतमाता भगवान की प्रिय भूमि है।
मैं उन लोगों में से नहीं हूँ जो आधुनिकता के जोश में अपने अतीत के गौरव को भूल जाते हैं। हमें भूतकाल को अपना आधार बनाना है। भारत की अपनी संस्कृति है, जिसे उसे अपनी सुनिश्चित धाराओं में विकसित करते जाना है। हमारे पास विश्व को देने के लिए दर्शन, साहित्य, कला व विज्ञान में बहुत कुछ नया है और उसकी ओर सारा संसार टकटकी लगाये हुए है।
अब समय नहीं है और सोने का। हमको अपनी जड़ता से जागना ही होगा, आलस्य त्यागना ही होगा और कर्म में जुट जाना होगा…